वो मुसाफिर भी किसी मोड़ पे भला क्यूं रुकता
जिसके पैरों में न जंजीरें थी, वो भला क्यूं रुकता
कहीं माजी के इशारे पे मैं पीछे न मुड़ा
छूटे लम्हों की राहों पे आखिर मैं क्यूं चलता
दश्त में खौफ था फैला किसी आंधी का
ऐसे माहौल में एक पत्ता भी भला क्यूं हिलता
सामने आते ही जिसके मैं आईना बन गया
फिर मुझे खुद में उसके सिवा कोई क्यूं मिलता
(माजी- अतीत)
©RajeevSingh # love shayari #share photo shayari
Advertisements