जला रहा हूं ये दिल, कोई दीया तो मिले
हुए हैं खाक मगर हाय कहीं धुआं तो मिले
बुने हैं दर्द के धागों से इश्क की चादर
इसे बिछाऊंगा पर तेरा आशियां तो मिले
सजा रहा हूं कांटों को अपने गुलशन में
मेरे चमन को दीदार-ए-बहारां तो मिले
सजा-ए-मौत न मिल पाई इस मुजरिम को
मगर गुनाह की कोई दास्तां तो मिले